वांछित मन्त्र चुनें

यो अ॑पा॒चीने॒ तम॑सि॒ मद॑न्तीः॒ प्राची॑श्च॒कार॒ नृत॑मः॒ शची॑भिः। तमीशा॑नं॒ वस्वो॑ अ॒ग्निं गृ॑णी॒षेऽना॑नतं द॒मय॑न्तं पृत॒न्यून् ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yo apācīne tamasi madantīḥ prācīś cakāra nṛtamaḥ śacībhiḥ | tam īśānaṁ vasvo agniṁ gṛṇīṣe nānataṁ damayantam pṛtanyūn ||

पद पाठ

यः। अ॒पा॒चीने॑। तम॑सि। मद॑न्तीः। प्राचीः॑। च॒कार॑। नृऽत॑मः। शची॑भिः। तम्। ईशा॑नम्। वस्वः॑। अ॒ग्निम्। गृ॒णी॒षे॒। अना॑नतम्। द॒मय॑न्तम्। पृ॒त॒न्यून् ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:6» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:9» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:4


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यः) जो (नृतमः) मनुष्यों में उत्तम (शचीभिः) उत्तम वाणियों से (अपाचीने) बुरा चलना जिसमें हो, उस (तमसि) अन्धकार में (मदन्तीः) आनन्द करती हुई (प्राचीः) पूर्व को चलनेवाली सेनाओं को (चकार) करता है। हे विद्वन् ! जिस (वस्वः) धन के (ईशानम्) स्वामी (अनानतम्) नम्रस्वरूप (पृतन्यून्) अपने को सेना की इच्छा करनेवालों को (दमयन्तम्) निवृत्त करते हुए (अग्निम्) अग्नि के तुल्य प्रकाशस्वरूप ईश्वर की (गृणीषे) स्तुति करता है (तम्) उसका हम लोग सत्कार करें ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्यों में उत्तम राजा प्रजाओं के साथ पिता के तुल्य वर्त्तता है, जैसे निद्रा में सुखी होता है, वैसे सब प्रजाओं को आनन्द देता हुआ शत्रुओं को निवृत्त करता है, जो युद्ध में भय से शत्रुओं के साथ नम्र नहीं होता और धन का बढ़ानेवाला है, उसी राजा का हम लोग सदा सत्कार करें ॥४॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा कीदृशो भवेदित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यो नृतमः शचीभिरपाचीने तमसि मदन्तीः प्राचीश्चकार। हे विद्वन् ! यो वस्वः ईशानमनानतं पृतन्यून् दमयन्तमग्निं गृणीषे तं वयं सत्कुर्याम ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) (अपाचीने) योऽधोऽञ्चति (तमसि) अन्धकारे (मदन्तीः) आनन्दन्तीः (प्राचीः) या प्रागञ्चति (चकार) करोति (नृतमः) अतिशयेन नृणां मध्य उत्तमः ( शचीभिः) उत्तमाभिर्वाग्भिः। शचीति वाङ्नाम। (निघं०१.११)। (तम्) (ईशानम्) समर्थम् (वस्वः) वसुनो धनस्य (अग्निम्) (गृणीषे) स्तौषि (अनानतम्) नम्रीभूतम् (दमयन्तम्) निवारयन्तम् (पृतन्यून्) आत्मनः पृतनां सेनामिच्छून् ॥४॥
भावार्थभाषाः - यो नरोत्तमो राजा प्रजाभिस्सह पितृवद्वर्त्तते यथा निद्रायां सुखी भवति तथा सर्वाः प्रजा आनन्दयञ्छत्रून्निवारयति यो युद्धे भयाच्छत्रुभ्यो नम्रो न भवति धनस्य वर्धको वर्त्तते तमेव राजानं वयं सदा सत्कुर्याम ॥४॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो नरोत्तम प्रजेशी पित्याप्रमाणे वर्तन करतो व निद्रा जशी सुख देणारी असते तसा प्रजेला आनंद देतो व शत्रूंचा नाश करतो. जो युद्धात भयाने शत्रूला शरण जात नाही तर धनाची वाढ करतो त्याच राजाचा आम्ही सत्कार करावा. ॥ ४ ॥